17-10-81  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन

"सभी परिस्थितियों का समाधान - उड़ता पंछी बनो"

अव्यक्त बापदादा वतन निवासी, सदा न्यारे और सर्व के प्यारे शिव बाबा बोले :-

‘‘बापदादा सभी बच्चों को नयनों की भाषा द्वारा इस लोक से परे अव्यक्त वतनवासी बनने के इशारे देते हैं। जैसे बापदादा अव्यक्त वतनवासी हैं वेसे ही तत्त्वम् का वरदान देते हैं। फरिश्तों की दुनिया में रहते हुए इस साकार दुनिया में कर्म करने के लिए आओ। कर्म किया, कर्मयोगी बने फिर फरिश्ते बन जाओ। यही अभ्यास सदा करते रहो। सदा यह स्मृति रहे कि मैं फरिश्तों की दुनिया में रहने वाला अव्यक्त फरिश्ता-स्वरूप हूँ। फर्श निवासी नहीं, अर्श निवासी हूँ। फरिश्ता अर्थात् इस विकारी दुनिया, अर्थात् विकारी दृष्टि वा वृत्ति से परे रहने वाले। इन सब बातों से न्यारे। सदा वह बाप के प्यारे और बाप उनके प्यारे। दोनों एक दो के स्नेह मे समाये हुए, फरिश्ते बने हो? जैसे बाप न्यारा होते हुए प्रवेशकर कार्य के लिए आतें हैं, ऐसे फरिश्ता आत्मायें भी कर्म बन्धन के हिसाब से नहीं लेकिन सेवा के बन्धन से शरीर मे प्रवेश हो कर्म करते और जब चाहे तब न्यारे हो जाते। ऐसे कर्मबन्धनमुक्त हो - इसी को ही फरिश्ता कहा जाता है।

बाप के बने अर्थात् पुरानी देह और देह की दुनिया का सम्बन्ध समाप्त हुआ। इसीलिए इसको मरजीवा जीवन कहते हो। तो पुराने कर्मों का खाता समाप्त हुआ, नया ब्राह्मण जीवन का खाता शुरू हुआ। यह तो सभी जानते और मानते हो ना, कि मरजीवा बने हैं। बने हो, वा बन रहे हो? क्या कहेंगे?मर रहे हैं या मर रहे हैं? जब मर गयें, पिछला हिसाब समाप्त हुआ। ब्राह्मण जीवन कर्मबन्धन का जीवन नही होता। कर्मयोगी का जीवन होता। मालिक बन कर्म करते तो कर्मबन्धन नहीं हुआ लेकिन कर्मेन्द्रियों के मालिक बन जो चाहो, जैसा कर्म चाहों, जितना समय कर्म करने चाहो वैसे कर्मेन्द्रियों से कराने वाले होंगे। तो ब्राह्मण अर्थात् फरिश्ता। कर्मबन्धनी आत्मा नहीं लेकिन सेवा के शुद्ध बन्धन वाली। यह देह सेवा के अर्थ मिली है। आपके कर्मबन्धन के हिसाब किताब के जीवन का हिसाब समाप्त हुआ। यह नया जीवन है। यह तो सभी समझते हो ना! पुराना हिसाब अब तक रहा हुआ तो नहीं है? क्या समझते हैं महाराष्ट्र वाले? टीचर्स क्या समझती हैं? हिसाब किताब चुक्तू करने में होशियार हैं वा ढीलें हैं? चुक्तू करने आता तो हैं ना? फरिश्ता बन जाओ तो मेहनत से छूट जायेंगे। चलने वाले, दौड़ने वाले, जम्प लगाने वाले, इन सबसे ऊंचे उड़ने वाले हो जायेंगे। तो मेहनत से छूट जायेंगे ना! अनादि रूप में हैं ही उड़ने वाले। आत्मा उड़ता पंछी है, चलता हुआ पंछी नहीं। तो अनादि संस्कार जो बोझ के कारण भूल गये हैं, फरिश्ते के बजाए कर्मबन्धनी, उड़ते पंछी के बजाए पिंजड़े के पंछी बन गये हैं। अब फिर से अनादि संस्कार उड़ते पंछी के इमर्ज करो। अर्थात् फरिश्ते रूप में स्थित रहो। ततत्त्वम् के वरदानी बनो। इसी को ही सहज पुरूषार्थ कहा जाता है। भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में क्या करूँ, कैसे करूँ की जो मेहनत करते हो इससे परिस्थिति बड़ी और आप छोटे हो जाते हो। परिस्थिति शक्तिशाली और आप कमजोर हो जाते हो। किसी भी परिस्थिति में चाहे प्रकृति के आधार पर कोई परिस्थिति हो, चाहे अपने तन के सम्बन्ध से कोई परिवर्त्तन हो, अपने वा दूसरों के संस्कार के आधार पर कोई परिस्थिति हो, सब परिस्थितियों मे क्या और क्यों का एक ही उत्तर है -’’उड़ता पंछी बन जाओ''। परिस्थिति नीचे और आप ऊपर हो जायेंगे। ऊपर से नीचे की वस्तु कितनी भी बड़ी हो लेकिन छोटी-सी अनुभव होगी। इसीलिए सब परिस्थितियों को सहज पार करने का सहज रास्ता है - फरिश्ता बनो, उड़ता पंछी बनो। समझा - सहज पुरूषार्थ क्या है? मेरा यह स्वभाव है, संस्कार है, बंधन है, इस मेरे-पन के बन्धन को मरजीवा बने तो क्या समाप्त नहीं किया? फरिश्तेपन की भाषा ‘मेरा-मेरा' नहीं। फरिश्ता अर्थात् मेरा सो तेरा हो गया। यह मेरा-मेरा ही फर्शवासी बनाता है। और तेरा-तेरा ही तख्तवासी बनाता है। तो फरिश्ता बनना अर्थात् मेरे-मेरे के बन्धन से मुक्त बनना। अलौकिक जीवन में भी मेरा एक बाप दूसरा मेरा कोई नहीं। तो ऐसे फरिश्ते बने हो? तो महाराष्ट्र वाले क्या बनेंगे? फरिश्ता बनना आता है ना? सब समस्याओं का एक ही समाधान याद रखना - उड़ता पंछी बनना है और बनाना है। समझा! अच्छा।

ऐसे बाप समान अव्यक्त रूपधारी फरिश्ते-स्वरूप, एक बाप मेरा दूसरा न कोई मेरा, ऐसे न्यारी और प्यारी स्थिति में रहने वाले, सदा कर्मेन्द्रियों जीत, कर्मयोगी और कर्मातीत, इसी अभ्यास में रहने वाले, सदा बन्धनमुक्त, सेवा के सम्बन्ध में रहने वाले ऐसे बाप समान ततत्त्वम के वरदानी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते''।

पार्टियों के साथ अव्यक्त मुलाकात

सदा अपने को इस सृष्टि ड्रामा के अन्दर हीरो पार्टधारी समझकर चलते हो? जो हीरो पार्टधारी होते हैं उनको हर कदम पर अपने ऊपर अटेन्शन रहता है, उनका हर कदम ऐसा उठता है जो सदा वाह-वाह करें, वन्स मोर करें। अगर हीरो पार्टधारी का कोई भी एक कदम नीचे ऊपर हो जाता है तो वह ‘हीरो' नहीं कहला सकता। तो आप सभी डबल हीरो हो। हीरो विशेष पार्टधारी भी हो और हीरो जैसा जीवन बनाने वाले भी। तो ऐसा अपना स्वमान अनुभव करते हो? एक है जानना और दूसरा है जानकर चलना। तो जानते हो वा जानकर चलते हो? तो सदा अपने हीरो पार्ट को देख हर्षित रहो, वाह ड्रामा और वाह मेरा पार्ट! अगर जरा भी साधारण कर्म हुआ तो हीरो नहीं कहला सकते। जैसे बाप हीरो पार्टधारी है तो उनका हर कर्म गाया और पूजा जाता है, ऐसे बाप के साथ जो सहयोगी आत्मायें हैं उन्हों का भी हीरो पार्ट होने के कारण हर कर्म गायन और पूजन योग्य हो जाता है। तो इतना नशा है या भूल जाता है? आधाकल्प तो भूले, अभी भी भूलना है क्या? अब तो याद-स्वरूप बन जाओ। स्वरूप बनने के बाद कभी भूल नहीं सकते।

2. जीवन को श्रेष्ठ बनाने का सहज साधन कौन सा है? श्रेष्ठ जीवन तब बनती जब अपने को ट्रस्टी समझकर चलते। ट्रस्टी अर्थात् न्यारा और प्यारा। तो सभी को बाप ने ट्रस्टी बना दिया। ट्रस्टी हो ना? ट्रस्टी होकर रहने से गृहस्थी पन स्वत: निकल जाता है। गृहस्थीपन ही श्रेष्ठ जीवन से नीचे ले आता। ट्रस्टी का मेरापन कुछ नहीं होता। जहाँ मेरापन नहीं वहाँ नष्टोमोहा स्वत: हो जाते। सदा निर्मोही अर्थात् सदा श्रेष्ठ सुखी। मोह में दु:ख होता है। तो नष्टोमोहा बनो।

प्रवृत्ति वालो से :- ‘‘सभी प्रवृत्ति मे रहते सदा न्यारे और प्यारे स्थिति में रहने वाले हो ना! प्रवृत्ति के किसी भी लौकिक सम्बन्ध वा लौकिक वायुमण्डल, वायब्रेशन मे तो नहीं आते हो? इन सब लौकिकता से परे अलौकिक सम्बन्ध में, वायुमण्डल में, वायब्रेशन में रहते हो? लौकिक-पन तो नहीं है ना? घर का वायुमण्डल भी ऐसा ही अलौकिक बनाया है जो लौकिक घर न लगे लेकिन सेवा केन्द्र का वायुमण्डल अनुभव हो? कोई भी आवे तो अनुभव करे कि यह अलौकिक है, लौकिक नहीं। कोई भी लौकिकता की फींलिग न हो। आने वाले अनुभव करें, यह कोई साधारण घर नहीं है। लेकिन मन्दिर है। यही है पवित्र प्रवृत्ति वालों की सेवा का प्रत्यक्ष-स्वरूप। स्थान भी सेवा करें, वायुमण्डल भी सेवा करे।

जैसे सेवाकेन्द्र पर अगर कोई भी जरा स्व-भाव स्व-संस्कार के वश होकर ऐसी चाल-चलन चलते हैं तो सब कहते हो ऐसा नहीं होना चाहिए। ऐसे ही आपके घर के स्थान पर भी ऐसी महसूसता हो कि इस स्थान पर ऐसा कोई कर्म नहीं होना चाहिए। यह फीलिंग दिल में आये कि यह कर्म हम नहीं कर सकते। जैसे सेवा स्थान पर कोई भी कमी पेशी देखते हो तो ठीक कर देते हो ऐसे अपने लौकिक स्थान को और स्थिति को ठीक कर देना। घर मन्दिर लगे, गृहस्थी नहीं। जैसे मन्दिर का वायुमण्डल सबको आकर्षित करता, ऐसे आपके घर से पवित्रता की खुशबू आये। जिस प्रकार अगरबत्ती की खुशबू चारों ओर फैलती, इसी प्रकार पवित्रता की खुशबू दूर-दूर तक फैलनी चाहिए, इसको कहा जाता है पवित्र प्रवृत्ति। अच्छा''